शेख फरीद जी" पंजाबी के सूफी संत थे shekh farid ji ki kahani
शेख फरीद जी" पंजाबी के सूफी संत थे
इनके पिता बंदगी करने वाले इंसान थे | वो मुल्तान गाँव के काजी थे । उनका नाम “शेख जमाल - उद सुलेमानी” था माताजी का नाम “बीबी करसुम” था, जो “शेख वजीरउद्दीन" की नाती थी ।
“बीबी करसुम” इतनी पवित्र और सुंदर थी की लोग उन्हें प्यार और श्रद्धा से "माता मरियम ” पुकारते थे । प्रभू की भक्ति से उन्होने आलौकिक शक्तियाँ पा ली थी, परंतु कभी भी उन्होने अपने पूरे जीवन में इसका प्रदर्शन नहीं किया ।
“फरीद जी” का जन्म 1175 ई0 के आस-पास गाँव खोतवाल, ज़िला मुल्तान (पाकिस्तान) में हुआ था । इनके जनम पर पूरे गाँव मे गरीबों मे मिट्ठाइयाँ बांटी गई । पिताजी ने इनका नाम, “सेख मसूद” रखा । आगे चलकर ये “हजरत ख्वाजा फरीदुद्दीन मसऊद गंजशकर” के नाम से मशहूर हुये | इनके पिता सूफी संत थे, उन्होने “नाफिया” नाम की एक धार्मिक पुस्तक भी लिखी थी।
इनकी माता जी इन्हे नमाजी बनाना चाहती थी, तो एक दिन वो नमाज पढ़ने लगी तो उन्होने इन्हें अपने साथ नमाज अता करने को कहा क्यूँ अम्मी !
ये बोले - नमाज ? इनकी माताजी बोली बेटा हर मुसलमान को पाँच वक़्त की नमाज अता करना जरूरी होता है इन्होने पूछ
नमाज अता करने से क्या होगा ?
ये मिट्ठे के शोकीन थे तो, नमाज पढ़ने की आदत डलवाने के लिए इनकी माता जी ने कहा- बेटा नमाज अता करोगे तो तुम्हें मिट्ठा खाने को मिलेगा ।
इन्होने कहा - मिट्ठा कौन देगा ?
माँ ने कहा- बेटा सब कुछ खुदा का है, मिट्ठा भी वो ही देगा । इन्होने अपनी माँ की देखा-देखी नमाज अता की । और अपने तकिये के नीचे से शक्कर की पुड़िया निकाल कर खा ली । जो इनकी माताजी ने पहले ही इनके तकिये के नीचे रख दी थी ।
ये रोजाना नमाज अता करने लगे । नमाज पढ कर तकिये के नीचे से पुड़िया निकालते और खा लेते। धीरे-धीरे ये पांचों वक़्त की नमाज पढने लगे । पहली - फ़जर की, दूसरी जुहर की, तीसरी अख की, चौथी मगरिब की और पाँचवीं ईशा की । ये पांचों वक़्त की नमाज पढने के आदी हो गये ।
एक दिन नमाज से पहले इनकी माताजी इनके तकिये के नीचे शक्कर रखना भूल गई । इन्होने नमाज अता की और तकिये के नीचे से पुड़िया निकाल कर खाने लगे ।
माताजी ने उन्हे कुछ खाते देखा तो पूछा- क्या खा रहे हो । तो इन्होने कहा माँ शक्कर खा रहा हूँ । माँ ने अपने बेटे के हाथ मे पुड़िया का कागज देखा तो हैरान हो गई। खुदा के करिश्मे को देखकर गदगद हो गई, दौड़कर अपने बेटे को गले से लगाया, और कहा-
आ मेरे लाल, शक्कर- गंज । सचमुच तुझे खुदा ने ही शक्कर खिलाई हैं शक्कर गंज । उसके बाद इनके नाम के साथ “गंज-शक्कर" जुड़ गया हाँ
"हजरत ख्वाजा फरीदुद्दीन मसऊद गंजशकर”हो गए
शुरू से ही घर में माता- पिता का, धार्मिक विचारों पर, वार्तालाप चलता रहता था । घर में बंदगी का माहौल होने के कारण, ये भी धार्मिक ख्यालों के हो गए थे । इनकी छोटी आयु में ही इनके पिता का इंतकाल हो गया था इनकी माताजी,
इस्लामिक तामिल की अच्छी जानकार थी | घर में ही उन्होने इन्हें, 12 साल की उम्र में “कुरान मजीद" का अध्ययन करवा दिया । इसी दौरान, उन्होने इन्हें, तपस्या से, सिद्दी प्राप्त करने का ज्ञान दिया । इन्होने तभी से मन में ठान लिया था, कि बड़े होकर तपस्या करके सिद्धियां प्राप्त करेंगे ।
जब ये कुछ बड़े हुये तो - एक दिन तपस्या के लिए, घर से निकल गए । एक जंगल में जाकर, तपस्या करने लगे । सर्दी-गर्मी सहकर जंगली फल खाये, जब कोई फल नही मिला तो पेड़ो से पत्ते तोड़ कर - भी खाये ।
तो - इन्होने गुस्से में आकर कहा - चिड़ियों मर जाओ, वहाँ जितनी भी चिड़ियां चह चाह रही थी, एकाएक जमीन पर, गिर कर मर गई ।
इन्होने देखा कि - मेरे कहने मात्र से, चिड़ियां जमीन पर गिर कर मर गई है । इन्हें अहसास हुया कि इन्हे सिद्धि प्राप्त हो गई है । इन्होने दोबारा अपनी सिद्धि आजमाने के लिए, चिड़िओं को देखा और बोले- चिड़ियों, उड़ जाओ ।
वहाँ जितनी भी चिड़ियां, जमीन पर गिर कर मर गई थी, उनमें जान आ गई, और वो अपने पंख फड़ पडा कर, उड़ गई । इन्हे विश्वास हो गया कि इन्हे सिद्दी प्राप्त हो गई है, वो सिद्ध हो गए हैं ।
चलते चलते रास्ते में एक गाँव आया, इन्हें प्यास लगने लगी, तो ये आस पास pai, तलाशने लगे। थोड़ी दूर चलने पर, इन्हें एक कुवां दिखाई दिया।
इन्होने देखा कि - एक स्त्री उस कुवें से, पानी भर रही हैं । ये कुवें के पास गए और उस स्त्री से कहा कन्या, मुझे प्यास लगी है, मुझे पानी पीला दो ।
उस स्त्री ने उनकी बात सुनी-अनसुनी कर दी, और कुवें से पानी निकाल कर, हवा में बिखेर दिया ।
इन्होने सोचा शायद | कन्या की नजर में, पानी पीने | लायक नही था, इसलिए बिखेर | दिया है, उस स्त्री ने दोबारा कुए मे डोल डाला और पानी निकाल | कर, पहले कि तरह, हवा में | बिखेर दिया । दो-तीन बार स्त्री ने, ऐसा ही किया । तो - इन्हे | थोड़ा गुस्सा आया और स्त्री से बोले कन्या ! मैं प्यासा हूँ, - | पहले मुझे पानी पिला दो। फिर | जितना बिखेरना है, बिखेर देना
उस स्त्री ने, डोल कुंए मे डालते हुए, जवाब दिया – “फरीद जी" बड़े - प्यासे हो. थोडा धैर्य रखो, मेरी बहिन का झोपडा यहाँ से बीस कोस दूर है, उसमें आग लग गई है । डोल ऊपर खींच कर पानी हवा मे बिखेरते हुए कहा- पहले उसे बुझाने दो, फिर मैं आपकी प्यास बुझाती हूँ
इन्होने सुना, तो कुछ हैरान हो गए। और सोचा - हूँ ! | तो ये कन्या भी सिह है ।
ये सुन कर इनको और भी आश्चर्य हुआ, कि ये तो अभी | अभी मेरे साथ हुआ है इसे कैसे | मालूम हो गया | ये तो मेरे बारे में, सब कुछ जानती हैं । इन्होने | ध्यान से देखा, स्त्री पानी हवा में | बिखेर रही है, वो जमीन पर नहीं गिर रहा । ये चुप-चाप पेड़ के | नीचे बैठ गए | ये समझ गए, कि 1 ये स्त्री कोई बड़ी सिद्द हैं । ये उस | स्त्री को कुंये से पानी भरते और | हवा मे बिखेरते देखते रहे कुछ देर बाद वो
स्त्री पानी से भरा मटका इनके पास लेकर आई
और बोली - लो "फरीद जी" पानी पिलो
ये बोले "कन्या ! मैं पानी बाद में पीऊँगा, पहले ये बताओ कि आप मुझे कैसे जानती हैं ? और बीस कोस दूर पानी पहुचाने की सिद्धि कैसे प्राप्त की ?
उस स्त्री ने कहा मैं तो केवल अपने पति को परमेश्वर जानकार, उनकी निस्वार्थ भाव से सेवा करती है। किसी को दुखी नही करती और अहंकार भी नही करती । आपने अपने अहंकार में सिद्धि परखने के लिए भगवान की परीक्षा ले ली | आपको ऐसा नही करना चाहिए था ।
इन्हें उस स्त्री की बातें उचित लगी, और अपने व्यवहार | पर पछताने लगे चुप हो गए । | पानी पीने के लिए अपने हाथ की, ओक्क बनाई, और उस स्त्री | के आगे झुक गये । उस स्त्रीने, पानी पिलाना | शुरू किया | ये पानी पीने लगे, पीते गए, पीते गए, मटके से न तो पानी खतम, हो रहा था, और ना ही इनकी प्यास |
ये, पानी पीते-पीते विचारों में खो गये, समय बीतता गया, जब इन्हें होश आया तो इन्होने अपनी ओक्क हटाई । ओक्क | हटाते ही जो देखा हैरान ! सब गायब था | वहाँ कोई भी नहीं ना | था ।
वो कुवें की मुंडेर के पास गए कुवें मेँ झाँका तो और भी हैरान कुवां सूखा पड़ा था, उसमें पानी नहीं थाये वहीं बैठ गए सोचने लगे ये सब क्या था ? किस लिए हुआ ? मुझे अहंकारी बनने से रोकने के लिए क्या ये प्रभु ने माया रची ? मुझे अहंकार नहीं करना चाहिए | इन्होनें तभी अहंकार त्याग दिया और अपने घर की ओर चल दिये ।
घर पहुंचे तो 12 साल बाद अपने जवान बेटे को देखकर माताजी जी बेहद खुश हो गई । बेटे की बलाए लेने लगी, चुमने लगी । इनके लिए साफ सुथरे कपड़े निकाले और उन्हे अच्छे से नहा धोकर आने को कहा फिर खुद एक पीढ़ी पर बैठी गई ।
बालों में जटाए बंध गई
थी। माँ धीरे-धीरे बाल सवारने लगी । बाल सवारते- सवारते, इनके कुछ बाल खिच गए, तो इन्हें पीड़ा हुई, और उनके मुंह से, "उई" निकल गई। तो स्वभाविक ही, माँ ने इनसे कहा "फरीद" जब पेड़ों से पत्ते तोड़ता था, तो पेड़ों को भी तकलीफ होती थी ।
इन्होनें कहा - माँ पेड़- पोधों को कैसी तकलीफ। माँ ने कहा- बेटा तकलीफ सब को होती हैं । जीव-जन्तु, पशु-पक्षी, पेड़-पौधे सब में परमात्मा का वास होता है। अपनी माँ की बातें सुन कर इन्होने मन में ठान लिया कि इन्सान को तो क्या, कभी भी किसी जीव-जन्तु, पशु-पक्षी, पेड़-पौधों को कष्ट नही देंगें। कुछ दिन बाद माँ ने इनसे कहा - बेटा तुम्हें एक गुरु खोजना होगा | गुरु के बिना तपस्या भी सफल नहीं होती
कुछ दिन बाद ये गुरु की तलाश में घर से निकल गए ।
गुरु की तलाश में चलते - चलते ये बगदाद पहुँच गए । - वहाँ इन्हें "शेख शाहबूद्दीन उमर सरवरदी" की जानकारी मिली । उनकी ख्याति और रुतबा देख कर इन्होने उनका मुरीद होने का मन बना लिया "उमर
ये सरखरदी" के डेरे पहुँच गए । उन्हें जाकर बोले - गुरु जी मैं आपका मुरीद होने आया हूँ, मुझे अपने डेरे में जगह दे दें । "उमर सरखरदी" ने इन्हें देखा और अपने डेरे में रहने की इजाजत दे दी |
वैसे तो "शेख शाहबूद्दीन उमर सरखरदी" के चेलों की संख्या काफ़ी थी, फिर भी वो किसी को मायूस नही करते थे। ये उनके डेरे में रहने लगे और बंदगी करने लगे |
एक दिन सब चेलों के साथ "फरीद जी" की बगल में "उमर सरखरदी" भी खाना खाने बैठे हुए थे । एक कनिज सबके हाथ धुलवाने आई | बारी-बारी सब हाथ धोने लगे |
जब इनकी बारी आई तो वो कनिज इनके भी हाथ धुलाने लगी | इनकी नजर उस कनिज के चेहरे पर पड़ी तो ये उसे देखने लगे |
उस खुबसूरत कनिज को इन्हें टकटकी लगा कर देखते, दुसरे चेले देख रहे थे वो सब आपस में खुसर- पुसर करने लगे | इनकी नजर उस कनिज के चेहरे पर थी और हाथ धो रहे थे, हाथ धोते रहे धोते रहे जब तक सुराही का पानी खतम नही हो गया | जब पानी ख़तम हो गया तो वो कनिज वहाँ से चली गई ।
दुसरे चेलों में से एक ने जोरदार आवाज में इन्हें ताना मरते हुए कहा - ये "मसूद" यहाँ मुरीद बनने आया है । औरतों को टकटकी लगाकर देख रहा है। इसे इतनी भी समझ नहीं कि औरतों को ऐसे नही देखा जाता |
ये सारा माजरा "उमर सरखरदी" खामोश देख रहे थे | इन्होने कहा मुझ पर तोहमत मत लगाओ | मैं जब अपने हाथ धोने लगा तो मेरी नजर कनिज पर नही उसकी पेशानी पर पड़ गई थी और मैने उसकी पेशानी पढ़ ली |
जिसमें इस कनिज को दोजख की यातना भोगनी पड़ रही थी | मुझे ख्याल आया कि जिस कनिज ने अपनी सारी उम्र "शेख शाहबूद्दीन उमर सरखरदी" के डेरे में खिदमत करके बिताई है वो दोजख की यातना क्यों भोग रही है ।
तो मैंने उस लेख को ही धोना शुरू कर दिया | मैं उसका चेहरा नहीं देख रहा था मैं उसकी पेशानी देख रहा था, और वो लेख धो रहा था | मैं तब तक धोता रहा जब तक वो मिट ना गया "उमर सरखरदी" ने गदगद होकर चिल्ला कर कहा "मसूद"-"सुभान अल्लाह" तेरा "हाल-ए- ईलम " अभी ऐसा है तो मुरीद होने के बाद क्या होगा |"शेख उमर
शाहबूद्दीन सरवरदी" ने कुछ दिन इन्हें अपने पास रखा फिर एक दिन इनसे कहा "मसूद" तेरी मंजिल मुल्तान में तेरा इंतजार कर रही हैं तुझे वहाँ जाना होगा और उन्होंने इन्हें मुल्तान भेज दिया। गुरु की
तलाश में ये बगदाद से
मुल्तान पहुँच गए । वहाँ एक
मस्जिद में ईलम लेने लगे | एक दिन एकांत में ये
अपने पिता की लिखी"नाफिया" पढ़ रहे थे ।
"हजरत ख्वाजा कुतुबुद्दीन बख्तियार काकी" उस मस्जिद मे पधारे। उनकी नजर इन पर पड़ी । उन्होंने इन्हें आवाज लगाई "फरीद" क्या पढ़ रहे हो । इन्होने जवाब दिया- जी नफे पढ़ रहा हूँ ।
उन्होंने कहा क्या तुम्हें ये नफे देंगी ? जब इन्होनें ये सुना तो सवाल पुछने वाले को देखने के लिए अपनी नजर ऊपर की तो “ख्वाजा काकी” के चेहरे की रूहानीयत देख कर दंग रह गए |
उन्हे महसूस हुआ कि ये ही हैं मेरे मुरशद / मेरे गुरु, ये उनके मुरीद हो गये उनको सजदा किया और कहा - मेरे आका, ये नफे मुझे नफा दे ना दे पर आपकी "नजर-ए- इनायत " मुझे नफे अवश्य देंगी ।
“काकी जी” ने कहा - "फरीद" तुम्हें ये किताब नफे अवश्य देंगी ।
इन्होने “हजरत ख्वाजा कुतुबुद्दीन बख्तियार काकी” को अपना गुरु बना लिया
अगले रोज "काकी जी" दिल्ली रुखसत होने लगे तो इन्होने भी उनके साथ चलने कि आज्ञा मांगी तो उन्होने इनसे कहा - "फरीद" अभी यहाँ रुक कर आगे और तालिम हासिल करो, फिर मेरे पास दिल्ली आना एक दिन ये "हजरत कुतुबद्दीन बख्तियार काकी" के पास दिल्ली आ गये । और उनकी सेवा करने लगे, ये उनके लिए हर सुबह " नमाज" से पहले नहाने का पानी गरम करते थे और पहनने वाले | कपड़ों को दुरस्त करते थे हर नमाज से पहले उनके | हाथ पैर धुलवाते थे।
"काकी" ने इन्हे
“चिल्हा-ए-माकस”
तपस्या करने को कहा । इस तपस्या में सिर नीचे और पैर ऊपर करके प्रभु सिमरण करते हैं। इस कठिन तपस्या के अभ्यास से इन्होने अपने मन पर | काबू पाया और करामाती फकीर बन गये
ये वो दौर था जब सब लोग सुबह की रसोई के लिए रात को आग संभाल कर रखते थे | एक रात बादलों की गडगडाहट से इनकी नींद खुली | बरसात जोरों से हो रही थी | ये भाग कर बाहर गए, जिसमें आग | संभाल कर रखी थी उसमें पानी चला गया था | आग बुझ गई थी ।
ये चिंता में पड़ गए कि सुबह गुरु जी के लिए पानी गर्म
कैसे होगा |
चारों तरफ अँधेरा था, पर बादलों की गडगडाहट के बाद बिजली के चमकने से रास्ता दिखाई दे जाता था | थोड़ी दूर एक घर में रौशनी नजर आई |
तो इनको आग मिलने की आस भी नजर आई । जहाँ रौशनी है वहाँ आग भी मिल जाएगी | आग लेने के लिए ये उस घर की ओर चल दिए |
बेख्याल से ये उस घर में घुस गए और वहाँ एक स्त्री को देख कर उससे कहा- मुझे आग चाहिए | क्या आप मुझे आग देंगी |
वो स्त्री इनके खुबसूरत चेहरे को निहारने लगी और वासना वश इनसे बोली- आपको आग चाहिए मैं आपको आग दे दूंगी | और जो मुझे चाहिए, क्या वो आप मुझे देंगे | इन्होने तुरंत कहा - हाँ अवश्य | उस स्त्री ने कहा - आपकी आँखे बहुत प्यारी है | क्या आप मुझे ये दे देंगे
इन्होने कहा - बेशक आप ले लीजिये पर मुझे आग बेशक दे |
उस स्त्री ने वहाँ पड़ा खंजर उठाया और इनकी आंख निकालने के लिए आगे बढ़ी। उसने सोचा ये पीछे हो जायेंगे अपनी जान बचायेंगे | पर ये निडर खड़े रहे तो खंजर इनकी आँख में धस गया और खून निकलने लगा |
उस स्त्री को मानो करंट लगा और वो पीछे गिर गई । देख कर वो घबरा गई भागकर अन्दर से पट्टी ले आई खून और इनकी आँख पर बांध दी |
इन्होने कहा - अब मुझे आग तो दे दो । उसने इन्हें आग ला कर दे दी | ये आग लेकर डेरे आ गए |
उस नमाज दिन बाद के "हजरत कुतुबद्दीन बख्तियार काकी" ने इनकी आँख पर पट्टी बंधी देखी | तो उन्होंने अपनी आँखें बंद की तो सारा
वाकया उनकी नजर में आ गया | अपनी नजर - ए - इनायत से इनकी आँख ठीक कर दी |
और मुस्कुरा बांधी हैं । कर इनसे पूछा - "फरीद" आँख पर पट्टी क्यों
इन्होनें रात का वाक्य बताना मुनासिब नहीं समझा और कहा - जी मेरी आँख आ गई है । "काकी" मुस्कुराये कि - ये कह तो सही रहा है पर बतला गलत रहा है कि इसकी आँख आ गई है |
उन्होंने इन्हें समझाने के लिए कहा - आँख आ गई है ।
"श्री गुरु नानक देव जी" के लंगर शु...एक्स
उन्होंने इन्हें समझाने के लिए कहा - आँख आ गई है । इन्होने समझा कि वो दोबारा पूछ रहे है तो ये बोले - जी ! जी! आँख आ गई है ।
"काकी जी" ने दोहराया - "फरीद" आँख आ गई है ।
श्री गुरु नानक देव जी" के लंगर शु... X
मतलब "काकी जी" को नजर - ए - इनायत से फरीद की आँख ठीक हो गई हैं, पर इन्हें पता नहीं चला | और इन्होनें फिर कहा- जी ! आँख आ गई है।
"काकी जी" ने कहा- "फरीद" आँख आ गई है, तो पट्टी खोल ।
इन्होने अपने गुरु जी की बात मानी और अपनी आँख से पट्टी उतार दी | आँख सही सलामत थी कोई घाव नही था ।
गुरु जी की इनायत देख कर ये उनके पैरों में गिर गए "काकी जी" ने इन्हें उठाया और कहा "फरीद" तेरी तपस्या पूरी हो गई है | जा अपना जीवन इस्लाम की सेवा में लगा |
और "काकी जी" ने इनका विवाह गुलाम वंश के बादशाह बलबन की बेटी "बीबी हजरबा अजीजा " के साथ करवा दिया।
शादी के बाद ये दिल्ली से फरीद कोट, खोतवाल, मुल्तान होते हुए "पाक-पटन" में जाकर बस गए | इनका दूसरा विवाह "बीबी "बीबी शाहदरा" से हुआ | कलसुम" से और तीसरा
इनकी 8 संताने थी । पाँच साहिब जादे "शेख शाहबूद्दीन और "शेख
ख्वाजा शेख नसरुद्दीन"शेख बदरुद्दीन"शेख निज़ामुद्दीन"शेख याकूब"अब्दुल्ला
इनकी 8 संताने थी । पाँच साहिब जादे "शेख शाहबूद्दीन
ख्वाजा शेख नसरुद्दीन"शेख बदरुद्दीन"
"शेख निज़ामुद्दीन"शेख याकूब और "शेख अब्दुल्ला
बाबा फरीद" की मृत्यु 1265 ई० मे हो गई । "पाव पटन" में आज भी वो कुंआ इनकी धरोहर है जिसमें "फरीद जी अपने शरीर को लटकाकर "हठ-योग" द्वारा परमात्मा व बंदगी किया करते थे। इनकी मृत्यु के बाद इनकी गद्दी देव गही नशीन इनके बेटे "शेख बदरुद्दीन" हुये ।
धीरे धीरे समय बीतता गया और जब इनकी 12वीं गद्दी पर 15वीं सदी के अंत में "शेख इब्राहिम" विराजे
पंख 16वीं सदी के उतरार्ध में "शेख
इब्राहिम" की मुलाक़ात सिखों के पहले गुरु “श्री गुरु नानक देव जी” से हुई उनसे आपके
आध्यत्मिक और उपदेशक श्लोकों को सुनकर "नानक जी" काफी प्रभावित हुये ।
17वीं सदी में सिखों के “आदि ग्रंथ” में और फिर 18वीं सदी के उतरार्ध में 1705 ई० में "श्री गुरु गोबिंद सिंह जी " द्वारा सिखों के गुरुओं की बानियों के साथ कुछ भक्तों की
बानियों को भी “आदि ग्रंथ” अर्थात “श्री गुरु ग्रंथ साहिब” में स्थान मिला | जिसमें इनके 4 शब्द और 112 श्लोक शामिल हैं।
फरीद जी” अरबी और फारसी भाषा के अच्छे जानकार थे, पर पंजाबी भाषा से उन्हें गहरा लगाव था इसी लिए इन्होने पंजाबी में अपने दोहों और श्लोकों को कलमबद्ध किया क्वारा
पंजाब के “फरीद कोट" शहर का पुराना नाम "मोखल पुर" था । "मोखल पुर" में "बाबा फरीद जी" चालीस दिन रहे थे, उस दौरान वहाँ के राजा "मोखल" आपके दिव्य ज्ञान से काफी प्रभावित हुए और उन्होने "मोखल पुर" को "फरीद कोट" का नाम दे दिया ।
"मोखल पुर" / "फरीद कोट"
जहाँ "बाबा फरीद जी" चालीस दिन ठहरे थे उस स्थान को आज "बाबा फरीद का टीला” कहा जाता हैं । जहाँ हर साल "21 सितम्बर से 23 सितम्बर" तक तीन दिन “बाबा शेख फरीद आगमन पर्व मेला” मनाया जाता है
“बाबा शेख फरीद आगमन पर्व मेला उनके कुछ दोहे मैं आपकी नजर कर रहा हूँ
जो तै मारण मुककिया, ऊना ना मारो घुम्म
अपनडे घर जाईये, पैर तिना दे चुम्म
जो तू अकल लतीफ हैं, काले लिख ना लेख
अपनडे गिरह बान में, सिर नीवा कर देख
रूखी सुखी खाय के, ठंडा पानी
पिउ वेख पराई चोपड़ी, ना तरसाइए जीउ