भगवान बुद्ध" सिद्धार्थ गौतम की जानकारी gotam budh ki jivan katha
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आज मैं आपके सामने "भगवान बुद्ध" सिद्धार्थ गौतम की जानकारी लेकर आया हूँ | जो बोद्ध धर्म के संस्थापक थे । सुनिएगा
563 ईसा पूर्व यानी कि आज से लगभग 2550-2600 साल पहले कपिल- -वस्तु नेपाल के शाक्य गणराज्य की राजधानी थी । इक्ष्वाकु वंश के शुद्धोधन क्षत्रिय वहाँ के राजा थे। वो अपनी महारानी महा माया के साथ आनद पूर्वक रहा करते थे ।
इनके विवाह को कई वर्ष बीत गए परन्तु महा माया को कोई संतान नही हुई । महारानी महा माया ने अपने नैहर देवदह के राज वैद की पत्नी से अपनी जाँच करवाई । वैद-पत्नी ने उन्हे बताया कि उसके पास उसके गर्भ धारण का ईलाज तो है परन्तु उनका गर्भ धारण करना उनके लिए बहुत ही खतरनाक है। तो शुद्धोधन का वंश आगे बढ़ाने के लिए महा माया ने अपनी छोटी बहिन महा प्रजावती का विवाह अपने पति से करवा दिया । महा प्रजावती को भी कोई संतान नही हुई। जब इनकी बहिन महा प्रजावती भी शुद्धोधन को
पुत्र देने में असमर्थ रही तो कुछ समय बीतने पर महारानी महा माया के गर्भ ठहर गया, समय गुजरता गया। एक दिन महा प्रजावती ने अपनी बहिन से कहा- दीदी ! अपने नैहर देवदह जाने का बड़ा मन कर रहा है महारानी महा माया का इस अवस्था में सफर करना उचित नही था फिर भी वो अपनी छोटी बहिन की इच्छा पूरी करने के लिए तैयार हो गई और अपने लिए एक आरामदेह पालकी का इंतजाम करवा लिया | रास्ते में नेपाल के तराई इलाके में लुम्बिनी वन पड़ता है जब वो यहाँ लुम्बिनी वन पहुंची तो
अचानक महा माया की तबियत खराब हो गई उन्होंने अपना खेमा वहीं लगवा लिया दर्द बढ़ता जा रहा था उस हालत में महा माया ने एक शिशु को जन्म दिया । महारानी महा माया का शरीर कमजोर पड़ गया था । तो महा प्रजावती ने अपनी बहिन को पालकी में लिटाया और जच्चा-बच्चा को वापिस कपिल-वस्तु ले आई। शुद्दोधन ने राजवैद को उनके सहायकों के साथ महा माया के ईलाज में लगा दिया । महाराज शुद्दोधन पुत्र पाकर बहुत खुश थे
उन्होंने पांचवें दिन एक नामकरण समारोह आयोजित किया । जन्म समारोह के दौरान, साधु द्रष्टा आसित ने घोषणा कर दी कि - ये बच्चा निसंदेह महान-पुरुष होगा इसका नाम चारों दिशाओं में फैलेगा चाहे महान राजा के रूप में चाहे महान पथ-प्रदर्शक के रूप में । शुद्दोधन ने दूर दूर से आठ ख्याति प्राप्त विद्वान ब्राह्मनों को भी शिशु का भविष्य पढ़ने के लिए आमंत्रित किया था | उन सबने भी इसी भविष्यवाणी को सत्य करार दे दिया । "जन्म स्थान समय और नक्षत्रों की स्थिति अनुसार गणना से ज्ञात हो रहा था कि इस शिशु नेसि
सिद्धि प्राप्ति के लिए जन्म लिया है " इस लिए इनका नाम सिद्धार्थ घोषित कर दिया। गौतम गोत्र में जन्म लेने के कारण ये गौतम बुद्ध कहलाए । कहते हैं जन्म समारोह के दो दिन बाद इनकी माताजी का उसी कमजोरी से निधन हो गया था । इनका पालन-पोषण इनकी मौसी और शुद्दोधन की दूसरी रानी महा प्रजावती गौतमी ने किया।
सिद्धार्थ के वचपन की अनेक घटनाओं से पता चलता है कि वो बचपन से ही करुणा और दया का बहुत बड़ा स्रोत थे ।
घुड़दौड़ में जब घोड़े दौड़ते है तो स्वभाविक ही उनके मुँह से झाग निकलती है । परन्तु सिद्धार्थ को ऐसा लगता था जैसे थकने के कारण उनके मुंह से झाग निकल रही है तो वो अपने घोड़े को सुस्ताने के लिए रोक दिया करते थे और जीती हुई बाजी हार जाते थे । खेलों में भी अगर कोई हार जाता है तो वो दुखी होता है । सिद्धार्थ किसी का ऐसे दुःख में भी नही देख पाते थे इस कारण वो हारने में भी संकोच नहीं करते थे । ऐसे ही एक दिन जब सिद्धार्थ के चचेरे भाई देवदत्त ने एक हंस को तीर से घायल कर दिया तो
उन्हें बेहद दुःख हुआ, उन्होंने हंस को उठाया उसकी मरहम पट्टी की अपनी देखरेख में उसे भला चन्गा किया। कहते हैं सिद्धार्थ ने अपने गुरुओं से चारों वेदों उपनिशेदों का अध्ययन किया था, राजकाज कुश्ती, घुड़दौड़, तीर-कमान चलाना इत्यादि युद्ध-विद्याओं की भी शिक्षा ली । सोलह वर्ष की आयु में सिद्धार्थ का विवाह पड़ोसी राज्य की एक सुंदर राजकुमारी यशोधरा से हो गया ।
राजा शुद्धोधन ने सिद्धार्थ के भोग-विलास का भरपूर प्रबंध कर दिया
उन्होंने ऋतुओं के अनुरूप तीन वैभवशाली और समस्त भोगों से युक्त महल बनवा दिए, इन महलों में नाच-गाने और मनोरंजन की सारी सामग्री उपलभ्द करवाई । दास-दासियां को उनकी सेवा में लगा दिया । पत्नी यशोधरा के साथ इन महलों में उन्होने राजसी एशो आराम से 13 वर्ष बिताये | एक पुत्र का जन्म हुआ । जिसका नाम राहुल रखा। 29 वर्ष की आयु में सिद्धार्थ को ये राजसी एशो आराम बाँधकर नहीं रख पाए । वसंत ऋतु में एक दिन सिद्धार्थ बगीचे में टहल रहे थे । बगीचे के बाहर रास्ते पर
पहली बार उन्हें एक बूढ़ा व्यक्ति दिखाई दिया । वो हाथ में लाठी पकड़े धीरे-धीरे काँपता हुआ चल रहा था । उसके मुंह में दाँत नही थे, बाल सफेद हो गए थे, शरीर आगे की ओर झुक गया था । उस बुढे व्यक्ति की दशा पर सिद्धार्थ को एक विचित्र से दुःख का अहसास हुआ | एक-दो दिन बाद जब सिद्धार्थ बगीचे में टहल रहे थे, तो बगीचे के बाहर उसी रास्ते पर दूसरी बार उन्हें एक रोगी चलता हुआ दिखाई दिया । उसकी साँस बहुत तेज चल रही थी। कंधे ढीले पड़ गए थे। शरीर हड्डियों का ढांचा रह गया था ।
एक अन्य व्यक्ति के सहारे से वो बड़ी मुश्किल से चल पा रहा था। उस बीमार व्यक्ति की दशा पर आज फिर सिद्धार्थ को उसी तरह के दुःख का अहसास हुआ | के एक दिन फिर जब सिद्धार्थ बगीचे में टहल रहे थे, तो तीसरी बार उसी रास्ते पर सिद्धार्थ ने एक अर्थी आते देखी । चार आदमी उसे कंधे पर उठाकर लिए जा रहे थे । पीछे-पीछे कुछ लोग चल रहे थे । कोई रो रहा था, कोई छाती पीट रहा था, कोई अपने बाल नोच रहा था । उस मृत व्यक्ति की अर्थी और उसके पीछे चलने वाले लोगों की दुर्दशा ने सिद्धार्थ को भीतर तक
विचलित कर दिया। वो एक पेड़ के निचे बैठ गये और काफ़ी देर उसी अवस्था में बैठे-बैठे चिंतन में खो गये -
विचारने लगे - धिक्कार है इस जवानी को, जो जीवन को सोख लेती है । धिक्कार है ऐसे स्वास्थ्य को, जो शरीर को नष्ट कर देता है । धिक्कार है इस जीवन को, जो इतनी जल्दी अपना समय पूरा कर देता है । क्या बुढ़ापा, बीमारी और मौत सदा इसी तरह आती रहेंगी ? इसी उधेड़-बुन में वो अपने महल चले गए, उन्हें महल की सुख सुविधाओं में एक खालीपन महसूस होने लगा किसी चीज में उनका मन नही लग रहा था
इसी ख़ामोशी में कुछ दिन बीत गये किसी की समझ में नही आ रहा था की सिद्धार्थ को क्या हो गया है ? एक दिन सिद्धार्थ बगीचे में टहल रहे थे चौथी बार उनकी नजर उसी रास्ते पर गई सामने प्रसन्नचित्त एक संन्यासी आता दिखाई दिया । संसार की सारी भावनाओं और कामनाओं से मुक्त संन्यासी ने सिद्धार्थ को कोई रास्ता सुझा दिया था । सन्यासी के जीवन से एक अजीब संतुष्टि पाकर सिद्धार्थ गंभीर हो गये उन्होंने इस मानव जीवन को रोगों से मुक्ति दिलाने के लिए, और सच्चे ज्ञान की प्राप्ति के लिए
सब कुछ त्यागने का मन बना लिया । और एक रात राजपाठ, नवजात शिशु और धर्म पत्नी यशोधरा का मोह त्यागकर, संसार को जनम -मरण के दुखों से मुक्ति दिलाने, और सच्चे दिव्य ज्ञान को प्राप्त करने के लिए जंगल की ओर चले गए। कई वर्षों तक तपस्या की । सिद्धार्थ को किसी तरह का कोई ज्ञान प्राप्त नहीं हुआ। एक दिन वे भिक्षा माँगने राजगृह पहुँचे । घूमते-घूमते आलार कलाम के पास पहुँच गये और उन्हें अपना गुरु बना लिया, उनसे योग-साधना और समाधि लगाना सीखा। पर उन्हें यहाँ भी किसी तरह का कोई
ज्ञान प्राप्त नहीं हुआ । ये उरुवेला पहुँचे और वहाँ पर अनेक तरह से तपस्या करने लगे, उन्होंने पहले तिल और चावल खाकर फिर निराहार रहकर तपस्या की । जिस कारण से उनका शरीर सूखकर काँटा हो गया । यहाँ भी तपस्या करते छः साल हो गये थे । एक दिन सिद्धार्थ तपस्या कर रहे थे । कुछ स्त्रियाँ वीणा के मधुर संगीत में गीत गाती नगर से लौट रही थी गीत सिद्धार्थ के कानों में पड़ा- उनका ध्यान तपस्या से उस मधुर संगीत की ओर चला गया और वो सुनने लगे सहसा एक स्त्री बोली- मधुर संगीत
ए.... वीणा के तार ठीक कर उसको ढीला मत छोड़ । तार को ढीला छोड़ने से उसका सुरीला स्वर नहीं निकलेगा । पर तारों को इतना भी मत कस कि तार टूट जाएँ ।' वो स्त्रियाँ आगे निकल गई, सिद्धार्थ को शिक्षा ין मिल गई थी उन्हें समझ आ गया था । वो मान गये थे कि नियमित आहार-विहार से ही योग सिद्ध हो सकता है । अति तो हर चीज की बुरी है । किसी भी चीज को प्राप्त करने के लिए मध्यम मार्ग ही उचित मार्ग है उसी मार्ग से इसके लिए कठोर तपस्या करनी होगी। सिद्धार्थ को शिक्षा इन स्त्रियों से अवश्य मिल गई थी
पर उनके प्रथम गुरु आलार कलाम ही थे, जिनसे उन्होंने संन्यास काल में शिक्षा प्राप्त की ।
बोधगया बिहार में एक निरंजना नदी है जिसे लीलाजन नदी भी कहते है । वैशाखी पूर्णिमा के दिन अपनी 35 वर्ष की आयु में सिद्धार्थ इस नदी में स्नान करके इसके तट पर एक पीपल के पेड़ के निचे ध्यानस्थ हो गये । समीपवर्ती गाँव की एक स्त्री सुजाता ने काफ़ी मन्नतों के बाद एक पुत्र को जन्म दिया । बेटे के नाम संस्कार के बाद अपने घर में सुजाता ने गाय के दूध की खीर बनाई । एक सोने की थाली में खीर और पूजा सामग्री सजा
पीपल के वृक्ष को अर्पण करने के लिए निरंजना नदी की ओर चल पड़ी । लोटे में निरंजना नदी का जल भर कर सुजाता उस पीपल के पेड़ पर पहुंची जहाँ सिद्धार्थ ध्यानस्थ थे । सुजाता ने जब सिद्धार्थ को ध्यानस्थ मुद्रा | में देखा तो गदगद हो गई, उसकी ख़ुशी का ठिकाना नही था । उसे लगा मानो स्वंय वृक्षदेवता उसकी पूजा ग्रहण करने के लिए शरीर धारण कर बैठ गये हों । सुजाता ने पवित्र मन से आदरता पूर्वक सिद्धार्थ का पूजन किया पूजा पूरी कर अपने घुटनों के बल बैठकर हाथ जोडकर प्रणाम किया और सिद्धार्थ के चरणों को स्पर्श किया।
इस स्पर्श से सिद्धार्थ की आंख खुल गई। सुजाता ने खीर वाली थाली अपने हाथों में ली और भोग के लिए सिद्धार्थ को भेंट करने लगी । सिद्धार्थ ने देखा उनके सामने एक स्त्री अपना सर झुकाए खीर भेंट कर रही है । उन्होंने बिना संकोच खीर ग्रहण की । खाली कटोरी सुजाता को लौटा दी । सिद्धार्थ के सच का पता चला तो सुजाता ने कहा - इसी वृक्षदेवता ने मेरी मनोकामना पूरी की है । वृक्षदेवता समझकर मैंने आपका पूजन किया और खीर भेंट की है। जैसे इन्होंने मेरी मनोकामना पूरी की है। वैसे ही ये आपकी भी मनोकामना पूरी करेंगे।'
इतना कहकर सुजाता वहाँ से चली गई । कहते हैं उसी रात को ध्यान लगाने पर सिद्धार्थ की साधना सफल हुई। उन्हें सच्चा बोध हुआ । तभी से सिद्धार्थ 'बुद्ध' कहलाए । जिस पीपल के वृक्ष के नीचे सिद्धार्थ को ज्ञान बोध मिला वह बोधिवृक्ष कहलाया और गया का समीपवर्ती वह स्थान बोधगया और वे सिद्धार्थ गौतम से भगवान बुद्ध कहलाये । चार सप्ताह तक बोधिवृक्ष के नीचे रहकर धर्म के स्वरूप का चिंतन करने के बाद बुद्ध धर्म का उपदेश करने निकल पड़े । आषाढ़ की पूर्णिमा को वे काशी के पास
बोधिवृक जिसे अब हम सारनाथ कहते हैं
। वहीं पर उन्होंने सर्वप्रथम धर्मोपदेश दिया और प्रथम पाँच मित्रों को अपना अनुयायी बनाया और फिर उन्हें धर्म प्रचार करने के लिये भेज दिया । आनंद, बुद्ध के प्रिय शिष्य थे । बुद्ध आनंद को ही संबोधित करके अपने उपदेश देते थे।
एक दिन महात्मा बुद्ध मगध देश में पधारे वहाँ का राजा था बिम्बिसार था । जनता में एक खूँखार डाकू अंगुलिमाल का आतंक छाया हुआ था । अँधेरा होने से पहले ही लोग अपने अपने घरों में आ जाते थे ।
अँधेरे में बाहर निकलने की किसी की हिम्मत नहीं होती थी, क्योंकि वहाँ के जंगल में अंगुलिमाल रहता था। वो अपने गले में कटी हुई अँगुलियों की माला पहने रखता था । वो जंगल में से गुजरने वाले राहगीरों को लूटकर उन्हें मार देता था और उस मृत की एक उँगली काटकर अपनी माला में पिरो लेता था और फिर अपने गले में पहन लेता था । इसी कारण लोग उसे "अंगुलिमाल" कहते थे । जब महात्मा बुद्ध मगध पहुंचे तो लोगों ने उनका खूब स्वागत किया । यहीं महात्मा बुद्ध को अंगुलिमाल के बारे में पता चला ।
जो निरपराध राहगीरों की हत्या करता था । महात्मा बुद्ध ने जंगल में जाकर अंगुलिमाल से मिलने का निश्चय किया, गाँव वालों ने रोकने की कोशिश की परन्तु वो नही रुके। बुद्ध सरल भाव से जंगल में चले जा रहे थे, तो पीछे से किसी ने आवाज लगाई - "ठहर जा, कहाँ जा रहा है ?" बुद्ध अनसुने आगे चलते रहे । पीछे से अत्यंत कठोर आवाज आई - "मैं कहता हूँ ठहर जा।" बुद्ध ठहर गए और पीछे मुडकर देखा एक लंबा-चौड़ा पहाड़ जैसे डील-डोल वाला खूँखार व्यक्ति आ रहा है । उसके गले में उँगलियों की माला लटक रही थी ।
हाथ में तलवार लहराता हुआ महात्मा बुद्ध के पास आ गया । महात्मा बुद्ध ने शांत और मधुर लहजे में कहा- "मैं तो ठहर गया । अंगुलिमाल तू कब ठहरेगा ?" अंगुलिमाल ने महात्मा बुद्ध के चेहरे को देखा, सुंदर शांत रूप, कोई भय नही, अंगुलिमाल ने भय से कांपते लोग देखे थे | उसने कहा - "हे सन्यासी ! मेरे गले में उँगलियों की माला देखकर तुम्हें मुझसे भय नहीं लग रहा ? ये उन लोगों की उंगलियाँ है जिन्हें मैने मार डाला है और वो मुस्कुराने लगा । "महात्मा बुद्ध बोले- "तुझसे किस लिए डरना ?
जो सचमुच ताकतवर हो उससे डरना चाहिए ।" अंगुलिमाल जोर से हँसा - सन्यासी ! तुझे मेरी ताकत का अंदाजा नही है । 'महात्मा बुद्ध बोले- तुम ताकतवर हो तो जाओ उस पेड़ के दस पत्ते तोड़कर लाओ ।' अंगुलिमाल दस पत्ते तोड़ लाया और बोला - लो कहो तो पेड़ उखाड़ लाऊँ ।' महात्मा बुद्ध ने कहा - 'नहीं, पेड़ उखाड़ने की जरूरत नहीं है। अब अगर तुम सचमुच ताकतवर हो तो जाओ इन पत्तियों को पेड़ में जोड़ कर दिखाओ ।' अंगुलिमाल क्रोधित हो गया और बोला 'भला कहीं टूटे हुए पत्ते भी जुड़ सकते हैं ।"
महात्मा बुद्ध ने कहा - 'तुम जिस चीज को जोड़ नहीं सकते, उसे तोड़ने का अधिकार तुम्हें किसने दिया ? एक आदमी का सिर जोड़ नहीं सकते तो काटने में क्या बहादुरी है ? अंगुलिमाल अवाक रह गया । वह महात्मा बुद्ध की बातों को सुनता रहा । एक अनजानी शक्ति ने उसके हृदय को बदल दिया । उसे लगा कि सचमुच उससे भी ताकतवर कोई है। उसे आत्मग्लानि होने लगी । वह महात्मा बुद्ध के चरणों में गिर पड़ा और बोला - 'हे महात्मन ! मुझे क्षमा कर दीजिए। मैं भटक गया था। आप मुझे शरण में ले लीजिए
भगवान बुद्ध ने उसे अपनी शरण में ले लिया और अपना शिष्य बना लिया ।
बुद्ध के धर्म प्रचार से भिक्षुओं की संख्या बढ़ने लगी । बड़े-बड़े राजा-महाराजा भी उनके शिष्य बनने लगे । भिक्षुओं ने बौद्ध संघ की स्थापना की जिसमें स्त्रियों का प्रवेश निषेध था । बाद में लोगों के आग्रह पर बुद्ध ने उतना अच्छा न मानते हुए भी स्त्रियों को संघ में लेने की अनुमति दे दी । महाप्रजापती गौतमी जिन्होंने गौतम का लालन-पालन किया था । उन्हें बौद्ध संघ में पहली महिला बुद्ध को प्रवेश मिला।
भगवान बुद्ध ने ‘बहुजन हिताय' लोककल्याण के लिए अपने धर्म का प्रचार देश-विदेश में करने के लिए अपने
भिक्षुओं को भेजा ।
भगवान बुद्ध ने लोगों को मध्यम मार्ग अपनाने का उपदेश किया । उन्होंने दुःख, उसके कारण और निवारण के लिए अष्टांगिक मार्ग सुझाया । उन्होंने अहिंसा पर बहुत जोर दिया है । उन्होंने कहा कि यज्ञ में पशुओं की बलि नही देनी चाहिए ।
बुद्ध के उपदेशों का सार इस प्रकार है ;-
1. उन्होंने सनातन धरम के अग्निहोत्र तथा गायत्री मन्त्र
का प्रचार किया।
2. ध्यान और अन्तर्दृष्टि
3. मध्य मार्ग का अनुसरण
4. चार आर्य सत्य और
अष्टांग मार्ग 80 वर्ष की उम्र तक उन्होंने अपने धर्म का संस्कृत के बजाय उस समय की सीधी सरल लोकभाषा पाली में प्रचार किया । उनके सीधे सरल धर्म की लोकप्रियता तेजी से बढ़ने लगी। एक दिन बुद्ध ने घोषणा की कि वे जल्द ही परिनिर्वाण यानी अपना शरीर त्यागने वाले हैं।
कुन्डा लोहार ने अपने आम के बाग में महात्मा बुद्ध को भोज पर बुलाया, अपने कुछ शिष्यों के साथ उन्होंने कुन्डा लोहार का भोजन ग्रहण किया, उस भोजन के बाद वे गंभीर रूप से बीमार पड़ गये थे जी
कुन्डा लोहार खुद को दोषी मानने लगा और पश्चाताप करने लगा बुद्ध ने अपने शिष्य आनंद को निर्देश दिया कि वह कुन्डा को समझाए कि वह भोजन अतुल्य था इसमें उसकी कोई गलती नहीं है, और इसी बीमारी की हालत में 483 ईसा पूर्व कुशी नगर में उन्होंने अपना शारीर त्याग दिया जी
नेपाल के लुंबिनी में महाराज अशोक ने तीसरी शताब्दी ईसा पूर्व बुद्ध के जन्म की स्मृति में एक स्तम्भ बनवाया और विदेशों में बुद्ध धर्म के प्रचार में अपनी अहम् भूमिका निभाई। मौर्यकाल तक चीन, जापान, कोरिया, मंगोलिया, बर्मा, थाईलैंड, हिंद चीन, श्रीलंका आदि बौद्ध धर्म बहुसंख्यक देश बन गये थे तो ये थी भगवान बुद्ध जी के जीवन की जानकारी आपको कैसी लगी